देहरादून: राजधानी में जाम रोजमर्रा की बात है। इसके कारणों की तलाश करें तो बड़ा हाथ बेतरतीब पार्किंग का है। सड़कों के बड़े हिस्से को घेरकर आड़े-तिरछे खड़े रहने वाले वाहनों के कारण ही जाम लगता है। …लेकिन, सिर्फ वाहनों पर तोहमत मढ़ देना सही नहीं है। बड़ा सवाल यह है कि आखिर बेतरतीब पार्किंग पटरी पर क्यों नहीं आ पा रही। इसका जवाब भी पूरी तरह सपाट है कि दिनोंदिन चौगुनी तेजी से बढ़ोत्तरी कर रहे वाहनों को फिर कहां पार्क किया जाए। क्योंकि हमारे शहर में पर्याप्त पार्किंग स्थल ही नहीं हैं। बीते 18 साल में राजनीतिक और सरकारी तंत्र यहां दो नए पार्किंग स्थल ही बना सका जबकि वाहनों की संख्या 300 फीसद बढ़ गई। ऐसा नहीं कि पार्किंग स्थल बनाए नहीं जा सकते, लेकिन इसके लिए शर्त है कि सरकार व नीति-नियंता आरामतलबी से बाहर निकलकर हाथ-पैर चलाए। उत्तर प्रदेश से अलग होने पर उत्तराखंड की राजधानी बने देहरादून शहर में यूं तो काफी कुछ बदला, लेकिन यह बदलाव अव्यवस्थित तरीके से हुआ। बीते 18 साल में यहां वाहनों की संख्या तीन गुना बढ़ गई, जबकि सड़कों पर चलने लायक जगह भी मुश्किल से मिल रही है। बावजूद इसके यहां लाखों वाहनों के लिए महज दो पार्किंग ही बनाई जा सकीं। एक घंटाघर पर एमडीडीए कांप्लेक्स में और दूसरी डिस्पेंसरी रोड पर एमडीडीए कांप्लेक्स में। यह दोनों भी पांच वर्ष पूर्व अस्तित्व में आईं। यानी 13 साल प्रशासन ने यूं ही बिता दिए। हैरत की बात ये है कि ट्रैफिक पुलिस ने शहर में चार नए पार्किंग स्थल विकसित करने को कसरत की और प्लान तैयार कर जिम्मेदार महकमे एमडीडीए को भेज दिया, मगर एमडीडीए ने ये प्लान फाइल से बाहर नहीं निकाले। ऐसे में पुलिस की भूमिका सिर्फ बेतरतीब खड़े वाहनों को खदेडऩे या उन्हें क्रेन से सीज करने तक सीमित रह गई। जो वाहन सड़क पर खड़े होते हैं वह पुलिस की फटकार के बाद दूसरी सड़क पर खड़े हो जाते हैं। साफ है कि सड़क पर वाहनों की पार्किंग पर अंकुश तब तक नहीं लग पाएगा जब तक पार्किंग की समुचित व्यवस्था नहीं होती।