भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठतम नेता लालकृष्ण आडवाणी ने ससंद के गतिरोध को लेकर ‘इस्तीफा देने का मन’ होने का बयान देकर राजनीति की बुझती लौ में आखिरी फूंक मारने का प्रयास किया है। दरअसल आडवाणी ने यह बयान देकर एक तीर से दो निशाने साधे हैं। पहला निशाना प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और दूसरा देश की जनता पर है। बयान के जरिए देश के लोगों के समक्ष सौम्य चेहरा दिखाते हुए यह दर्शाने का प्रयास किया गया है कि उनकी लोकतांत्रिक मूल्यों में कितनी प्रगाढ़ आस्था है, बेशक पार्टी का रवैया कुछ भी हो। वहीं दूसरी तरफ यह बयान पार्टी लाइन से हट कर देने के मतलब कुछ और ही हैं। इनमें पार्टी की तरफ से छिपी हुई मनुहार और महत्वाकांक्षा नजर आती है। यह भी साफ है जब तक प्रधानमंत्री मोदी का इशारा नहीं होगा तब तक पार्टी आडवाणी से ऐसे किसी कदम के खिलाफ अनुनय−विनय नहीं कर करेगी।
यह पहला मौका नहीं है जब आडवाणी ने दबे−छिपे ढंग से मोदी की रीति−नीतियों का विरोध किया है। फर्क सिर्फ इतना है कि इस बार संसद को शतरंज बना कर चालें चली गई हैं। विगत लोकसभा चुनाव में भाजपा के प्रधानमंत्री पद का दावेदार तय किए जाने की बैठकों से ही आडवाणी विरोध का फरसा थामे हुए हैं। चुनाव पूर्व गोवा में हुई पार्टी की बैठक का आडवाणी ने अघोषित रूप से बहिष्कार किया। तभी से संकेत मिल गए थे कि आगे चल कर मोदी से उनकी पटरी नहीं बैठेगी। उनका साथ देने वालों में पार्टी के वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा, शांता कुमार और शत्रुघ्न सिन्हा हैं। मौजूदा विदेश मंत्री सुषमा स्वराज भी आडवाणी खेमे में शामिल रही हैं।
गोवा बैठक, जिसमें नरेन्द्र मोदी को पार्टी की ओर प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया गया, उसमें सुषमा स्वराज ने भी अघोषित विरोध किया था। स्वराज कार्यकारिणी की बैठक में तो शामिल हुईं पर वहां हुई जनसभा से दूर रहीं। स्वराज ने मोदी का सीधे विरोध करने के बजाए पर्दे के पीछे से ही आडवाणी का साथ दिया। सीधे नहीं टकराने का पुरस्कार भी स्वराज को मिला। केंद्र में बहुमत आने के बाद मोदी सरकार में उन्हें विदेश मंत्री जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय की जिम्मेदारी मिली। सरकार में शामिल होने के बाद से स्वराज ने कभी भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मोदी सरकार के कामकाज की आलोचना और आडवाणी के तीखे स्वरों में स्वर नहीं मिलाया।
दरअसल स्वराज को साध कर मोदी खेमे ने आडवाणी खेमे का न सिर्फ तगड़ा झटका दिया बल्कि एक मजबूत मोहरे को अपने पाले में कर लिया। यह बात दीगर है कि केंद्र में यूपीए सरकार के दौरान भाजपा ने कई मर्तबा संसद के कामकाज को ठप्प किया। उस वक्त उसकी अगुवाई भी स्वराज ही कर रही थीं। उस समय लोकसभा में प्रतिपक्ष की नेता स्वराज ने यहां तक कहा था कि ‘संसद को नहीं चलने देना भी प्रजातंत्र का ही एक रूप है’, यह बात दीगर है कि वही भाजपा आज हायतौबा मचा रही है।
मोदी के प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी की घोषणा के बाद से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने आडवाणी से सम्मानजनक दूरी बनाए रखी। आरएसएस ने आडवाणी के इरादों को कभी हवा नहीं दी। यह सर्वविदित है कि समकालीन और वरिष्ठ नेताओं की प्रधानमंत्री पद पाने की कतार की पहली लाइन में अकेले मोदी ही आरएसएस के पसंदीदा प्रत्याशी रहे। भाजपा ने 2जी स्पैक्ट्रम, कोलगेट, एंट्रिक्स और राष्ट्रमंडल घोटालों के खुलासों के बाद यूपीए सरकार की नाक में दम किया रखा। संसद को अखाड़ा बनाने में कोई कोर−कसर बाकी नहीं रखी। उस दौरान आडवाणी ने पार्टी का पूरा साथ दिया। तब कहीं से भी आडवाणी को लोकतंत्र के हित नजर नहीं आए। तब उन्होंने एक बार भी संसद की सदस्यता से इस्तीफा देने की बात नहीं कही। इसके विपरीत यूपीए सरकार के खिलाफ संसद में हर सही−गलत विरोध प्रदर्शनों में भाजपा का साथ दिया।
केंद्र में भाजपा गठबंधन की सरकार अस्तित्व में आने के बाद से आडवाणी ने सरकार को निशाने पर लेने का कोई बड़ा मौका नहीं छोड़ा। बिहार विधान सभा चुनाव के दौरान भाजपा की करारी शिकस्त के बाद मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह को हार के लिए जिम्मेदार ठहराया गया। यशवंत सिन्हा ने खुला पत्र लिख कर केंद्र सरकार के तौर−तरीकों की आलोचना की। इसमें कोई संदेह नहीं कि पार्टी को राष्ट्रीय क्षितिज पर चमकाने का श्रेय आडवाणी को ही जाता है। आडवाणी के नेतृत्व में अयोध्या मुद्दे के बाद ही भाजपा का सितारा बुलंद हुआ। उससे पहले पार्टी की हालत क्षेत्रीय पार्टी से अधिक नहीं थी। आडवाणी यह बात बेशक खुल कर नहीं कह सके, किन्तु उनके परोक्ष बयानों और प्रतिक्रियाओं में उनका दर्द झलकता रहा है। दर्द इस बात का है कि जिसने एक झटके में पार्टी को राजनीति का ध्रुव तारा बना दिया, आज उसकी चमक से कोई और ही रौशन है। उनके हिस्से में चिराग भर रौशनी भी नहीं है। शायद उनका प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब भी बिखर गया।
आडवाणी इस तरह की बयानबाजी से पार्टी में अपनी हैसीयत बनाए रखने का प्रयास कर रहे हैं। इससे यह भी जाहिर है कि मोदी सरकार आडवाणी को किसी तरह तरजीह देने के पक्ष में नहीं हैं। पार्टी के मौजूदा खैरख्वाहों का आकलन है कि यदि आडवाणी खुल कर खिलाफत करते भी हैं, तो उनकी मंडली के घोषित विरोधियों के अलावा शायद ही कोई डूबती नाव में सवारी करे। भाजपा नेताओं को पता है कि अभी नरेन्द्र मोदी चढ़ता सूरज हैं। जबकि आडवाणी राजनीति के अस्तांचल में ढलते हुए। वैसे भी गंगा में पानी काफी बह चुका है। यदि विरोध होता भी है तो उसके ज्यादा प्रभाव की संभावना नहीं है। बेशक खफा आडवाणी सांसद पद से इस्तीफा ही क्यों न दे दें। सत्ता और संगठन पर प्रधानमंत्री मोदी जबरदस्त पकड़ बनाए हुए हैं।
आडवाणी को भी इस बात का भी अंदाजा है कि बंद मुठ्ठी लाख की और खुली तो खाक की, मसलन जब तक महत्वकांक्षाओं के ताबूत पर आखिरी कील नहीं ठुक जाती, तब तक विरोध पर कायम रहने की नीति है। इसमें राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी शायद आखिरी मंजिल हो। आडवाणी चूंकि उप−प्रधानमंत्री रह चुके हैं। वरिष्ठता के लिहाज से इससे ऊपर प्रधानमंत्री का पद ही बचा है। ध्वस्त होते सपने पूरा करने के लिए नरेन्द्र मोदी पर दवाब बनाने के लिए ऐसी तरकीबें ही काम आ सकती हैं। हालांकि कई मामलों में राष्ट्रपति की संवैधानिक भूमिका महत्वपूर्ण होती है। प्रधानमंत्री मोदी को उनकी उम्मीदवारी के लिए राजी करना आसान नहीं है। यदि आडवाणी का नाम इस पद के लिए उछाला भी जाता है और दबाव के चलते मोदी को उनके नाम पर मोहर लगानी भी पड़ी तो उनका यही प्रयास रहेगा कि अंकुश रखने के लिए आरएसएस की गारंटी हो। इसका मतलब होगा कि यदि आडवाणी राष्ट्रपति चुने जाते हैं तो मोदी से पुराना हिसाब−किताब चुकता नहीं कर सकेंगे। अब देखना यही है कि आडवाणी के तरकश में बचे आखिरी राजनीतिक तीर कितने निशाने पर बैठते हैं।