देहरादून: प्रीतम सिंह अचानक ही कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष नहीं चुने गए हैं। कांग्रेस ने उनका चयन एक सोची समझी रणनीति के तहत किया है। पार्टी में लगातार चल रहे अंदरुनी गतिरोध के बीच निर्विवाद व स्वच्छ छवि, लगातार चुनाव जीतना और आलाकमान से नजदीकी ने उनकी ताजपोशी की राह प्रशस्त की।
जानकारों की मानें तो प्रदेश अध्यक्ष बनना प्रीतम सिंह की पहली प्राथमिकता में शामिल नहीं था। चुनाव जीतने के बाद उनकी नजरें नेता प्रतिपक्ष के पद पर थी। इसमें उन्हें कामयाबी नहीं मिली। माना गया कि रावत गुट ने इस पद के लिए करण माहरा और गोविंद सिंह कुंजवाल का नाम आगे किया था। हालांकि, आलाकमान ने इसमें रावत गुट की भी नहीं सुनी।
आलाकमान ने पूर्व काबीना मंत्री डॉ. इंदिरा हृदयेश की वरिष्ठता को तरजीह देते हुए उन्हें नेता प्रतिपक्ष के पद सौंपा। ऐसा नहीं है कि प्रीतम सिंह को पहले प्रदेश अध्यक्ष बनने का मौका नहीं मिला था। वर्ष 2014 में यशपाल आर्य के बाद अध्यक्ष बने किशोर उपाध्याय से पहले प्रीतम सिंह का नाम सबसे आगे था।
इस दौरान उन्होंने यह जिम्मेदारी लेने में कोई रुचि नहीं दिखाई। प्रीतम सिंह को कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी और राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी का भी नजदीकी माना जाता है। यही कारण भी रहा कि सरकार में उन्हें कई बार साईडलाइन करने का प्रयास किया गया, लेकिन प्रीतम हमेशा ही अपनी कुर्सी बचाने में सफल रहे।
चुनाव में मिली करारी हार के बाद प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन तय माना जा रहा था। कांग्रेस अध्यक्ष इस समय अधिकांश राज्यों में नई टीम बना रहे हैं। इसके लिए वे केंद्रीय कार्यकारिणी की युवा टीम से सलाह मशविरा भी कर रहे हैं। जानकारों की मानें तो इस टीम ने भी प्रीतम सिंह को अपनी पहली पंसद के रूप में चुना। अंत में केंद्रीय नेतृत्व ने इस टीम की पसंद का ध्यान रखते हुए प्रीतम सिंह को प्रदेश अध्यक्ष का महत्वूपर्ण दायित्व सौंपा।