अविभाजित उत्तर प्रदेश से लेकर उत्तराखंड तक भाजपा की राजनीतिक यात्रा कई उतार-चढ़ाव और घुमावदार मोड़ों से होते हुए शीर्ष तक पहुंची। नब्बे के दशक में सक्रिय रहकर राम लहर पर सवार होकर उसने पहाड़ की चुनावी सियासत में भगवा बुलंद किया। उसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लहर के जरिये उत्तराखंड की राजनीति में प्रचंडता के दम पर अपनी जड़ों को और अधिक मजबूत करने में सफल रही। उत्तराखंड में भाजपा का हिंदुत्व की राजनीति के साथ उदय हुआ। हिंदुत्व की राजनीति, अलग राज्य आंदोलन की लड़ाई के दम पर उसने उत्तराखंड में पहली बार लहलहाई और मोदी लहर में प्रचंड जीत से वह पूरी तरह से छा गई।
2002 के विधानसभा चुनाव में 19 सीटों पर सिमटी भाजपा ने 2017 के विधानसभा चुनाव में सारे रिकाॅर्ड तोड़ डाले। यह मोदी लहर का कमाल था कि पार्टी ने 70 में से 57 सीटें जीतीं। इतना ही नहीं भाजपा ने इससे पूर्व तीन विधानसभा चुनावों में पूर्ण बहुमत हासिल न कर पाने की कसक को भी प्रचंड बहुमत से मिटा डाला। 2007 के चुनाव के बाद भाजपा राज्य में सरकार बनाने में कामयाब तो रही, लेकिन इसके लिए उसे जोड़तोड़ करनी पड़ी। चूंकि 69 सीटों पर चुनाव हुए थे, इसलिए सरकार बनाने के लिए उसे 35 की जादुई संख्या की दरकरार थी, लेकिन इससे वह दो सीटें दूर थीं। इसे बहुमत में बदलने के लिए भाजपा ने यूकेडी के तीन विधायक दिवाकर भट्ट, ओम गोपाल और पुष्पेश त्रिपाठी और दो निर्दलीय विधायक के सहयोग से सरकार बनाईं। नंदप्रयाग से जीते निर्दलीय विधायक भंडारी को बदले में खंडूड़ी सरकार में मंत्री पद मिला। बाजपुर विधानसभा उपचुनाव में भाजपा के अरविंद पांडे भी जीत गए। खंडूड़ी के लिए जनरल टीपीएस रावत ने धूमाकोट सीट छोड़ी। धूमाकोट उपचुनाव जीतकर जीतकर भाजपा अब बहुमत को लेकर सहज थी।