हल्द्वानी: जलवायु में आ रहे बदलाव ने पेड़-पौधों के प्राकृतिक चक्र में गंभीर बदलाव लाना शुरू कर दिया है। सेमल, पलाश के वृक्ष अब फरवरी-मार्च की जगह दिसंबर-जनवरी में ही फूलों से लकदक दिखते हैं। यही हाल बुरांश और किलमोड़ा जैसे वृक्षों का भी है। इनके समय से पहले ही फूलों से लद जाने को लेकर वनस्पति विज्ञानी खासे चिंतित हैं।
हालिया शोध में पता चला है कि इन वृक्षों में बांझपन आ रहा है। इनके बीज में प्रजनन क्षमता तेजी से खत्म हो रही है। ऐसे में इन प्रजातियों के भविष्य में विलुप्त होने के खतरे से इन्कार नहीं किया जा सकता। उत्तराखंड में इन्हें बचाने का प्रयास शुरू कर दिया गया है।
तेजी से हो रहा बदलाव
उत्तराखंड वन विभाग के विज्ञानियों ने इस बदलाव पर एक शोध रिपोर्ट तैयार की है। पहाड़ से लेकर मैदान तक जिन प्रजातियों में सर्वाधिक असर दिख रहा है, उनमें बुरांश, पलाश, किलमोड़ा व सेमल जैसे बड़े वृक्ष शामिल हैं। इसे जलवायु परिवर्तन का असर माना जा रहा है।
वनस्पतियों में आ रहे बदलाव पर उत्तराखंड वन अनुसंधान केंद्र ने शोध किया है। केंद्र के प्रभारी मदन सिंह बिष्ट बताते है कि पिछले पांच वर्षों में पहाड़ के जंगलों में बुरांश, पलाश और किलमोड़ा में समय से पहले फूल आ रहे हैं। शुरुआती दो वर्ष तक जंगल के गिने-चुने पेड़ों पर इस तरह का बदलाव दिखता था, लेकिन अब तो सभी वृक्षों में एक समान व्यवहार दिख रहा है। इनमें समय से पहले फूल आ रहे हैं। मैदानी हिस्सों में भी यही स्थिति बन रही है।
जनवरी में फूलों से भर गए सेमल, पलाश
शोध प्रभारी बिष्ट कहते हैं कि पलाश (ढाक या टिशू) के पेड़ों पर फूल फरवरी-मार्च में खिलते थे, लेकिन अब जनवरी में ही पलाश के पेड़ फूलों से लदे नजर आने लगे हैं।
पलाश का पुष्पण समय फरवरी-मार्च का महीना होता है। इसी तरह पहाड़ों में बुरांश, हिसालू, किलमोड़ा व मैदान में सेमल के पेड़ों पर भी पुष्प दो माह पूर्व ही खिलने लगे हैं। बकौल बिष्ट, यह एक खतरनाक संकेत है।
विलुप्त हो जाएंगे सेमल-पलाश जैसे वृक्ष
साल 2015 से 2017 में जिन पेड़ों पर समय से पहले फूल आए, उन पर किए शोध में वन अनुसंधान की टीम ने पाया कि इनके बीज में बीजाणु नहीं बन पा रहे हैं। इससे इन प्रजातियों में बीज से नए पौधे पनपने की क्षमता खत्म हो रही है। यही क्रम चलता रहा तो ये प्रजाति विलुप्त भी हो सकती है। लिहाजा, वन अनुसंधान की टीम पौधों के तनों से पौध तैयार कर प्रजाति को बचाने में जुटी है।
जलवायु परिवर्तन है वजह
निदेशक राज्य मौसम विज्ञान केंद्र विक्रम सिंह कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन व शीतकालीन बारिश और पहाड़ों में बर्फबारी की कमी के चलते प्राकृतिक बदलाव देखने को मिल रहे हैं। दिसंबर व जनवरी में सामान्य से ज्यादा तापमान रहने लगा है। बर्फबारी भी कम होती है। इसका असर जैव विविधता पर पड़ रहा है।
कल हो न हो… :
इन पेड़ों का देश की माटी से बड़ा गहरा जुड़ाव रहा है। इस बदलाव के बड़े मायने हैं। कविताएं बेमानी हो जाएंगी, कहावतें अर्थहीन हो जाएंगी। मानो एक युग का ही अंत होने जा रहा हो। सेमल का लाल फूलों से लद जाना यानी फागुन। ‘जंगल की आग’ यानी बसंत में जंगलों का पलाश के फूलों से भर जाना।
नई पीढ़ी को छोड़ दें तो अधिकांश ने अज्ञेय की कविता ‘माघ-फागुन-चैत’ बचपन में अवश्य पढ़ी होगी। उस कविता के जरिये इन महीनों की पहचान करना भी सीखा होगा। अब इन बातों के मायने बदल जाएंगे-
सहसा झरा फूल सेमर का गरिमा-गरिम अकेला पहला।
टूट चला सपना बसंत का चौबारा-चौमहला-लाल रुपहला।।
झर-झर-झर लग गई झड़ी सी
टहनी पर बस टंगी रह गई अर्थहीन उखड़ी-सी
टुच्ची-बुच्ची दाढिय़ां लंठूरी परखोंसे झुलसे पाखी सी।
क्रमश: आए दिन चैती, सौगात नई क्या लाए
बेचारी हर-झोंके-मारी, विरस अकिंचन सेमर की बुढ़िया मैया।