देहरादून: उत्तराखंड के पहले कीर्ति चक्र विजेता रिटायर्ड ले कर्नल इंद्र सिंह रावत ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। वह 104 वर्ष के थे। उन्होंने रेसकोर्स स्थित अपने आवास पर अंतिम सांस ली। 11वीं गढ़वाल राइफल्स की सैन्य टुकड़ी ने उन्हें अंतिम सलामी दी। उत्तराखंड एक्स सर्विसमेन लीग से जुड़े पूर्व सैनिकों ने भी उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की।
उनका हरिद्वार में राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया गया। वह अपने पीछे दो बेटे ब्रिगेडियर (सेनि) राजेंद्र रावत व कमांडर हरेंद्र सिंह रावत और तीन बेटियां अंबा, राजेश्वरी व विजयलक्ष्मी समेत नाती-पोतों का भरा-पूरा परिवार छोड़ गए हैं।
ले. कर्नल रावत का जन्म 30 जनवरी 1915 को पौड़ी गढ़वाल के बगेली गांव (राठ क्षेत्र) के एक किसान परिवार में हुआ था। सीमित संसाधनों के बावजूद कर्नल रावत ने गांव से करीब चार किमी दूर खिर्सू मिडिल स्कूल में दाखिला लिया और प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की।
1934 में हाईस्कूल पास करने के बाद उन्होंने लैंसडौन का रुख किया और गढ़वाल राइफल्स में भर्ती हो गए। रिक्रूट का प्रशिक्षण पूरा करने के यूनिट ने वर्ष 1937 में उन्हें आर्मी एजुकेशन स्कूल बेलगाम भेजा। इसके बाद वीसीओ स्कूल बरेली व आइएमए से कोर्स पूरा कर वर्ष 1944 में इंद्र सिंह कमीशंड अफसर बने।
वर्ष 1947-48 के भारत-पाक युद्ध में उन्होंने दुश्मन सेना को मुहंतोड़ जबाव दिया। युद्ध विराम की घोषणा के बाद वह वर्ष 1953 में डेपुटेशन के तौर पर असम राइफल्स में चले गए। नागालैंड में नागा विद्रोह को काबू करने के लिए उन्हें अशोक चक्र-दो (कीर्ति चक्र) मिला।
इसके बाद वह गढ़वाल राइफल्स की चौथी व पांचवीं बटालियन में भी तैनात रहे। वर्ष 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद गठित भारत-तिब्बत सीमा पुलिस बल (आइटीबीपी) की पहली बटालियन का दारोमदार भी कर्नल रावत को सौंपा गया।
ग्वालदम में भी आइटीबीपी की दूसरी बटालियन को उन्होंने स्थापित किया। गढ़वाल राइफल्स, असम राइफल्स व आइटीबीपी में 37 साल की सैन्य सेवा के बाद कर्नल रावत वर्ष 1970 में रिटायर हुए। सेवानिवृत्ति के बाद भी वह सामाजिक क्रियाकलापों से जुड़े रहे।
साथ ही पूर्व सैनिकों के अधिकारों के लिए भी निरंतर संघर्ष करते रहे। शतायु होने के बाद भी कर्नल रावत का जुनून व हौसला अंतिम सांस तक बरकरार रहा।
शादी के बाद सात साल तक पत्नी से रहे दूर
ले. कर्नल इंद्र सिंह नेगी की जिंदगी से कई संस्मरण जुड़े रहे हैं। अपनी आत्मकथा में उन्होंने जिंदगी के कई संस्मरण लिखे हैं। उन्होंने लिखा है कि शादी के सात साल तक वह अपनी पत्नी आशा देवी की सूरत तक नहीं देख सके थे।
वर्ष 1932 में 18 वर्ष की उम्र में उनका विवाह हुआ था। लेकिन परिस्थितियां ऐसी रही कि वर्ष 1939 तक एक दूसरे की सूरत तक देखने का मौका नहीं मिला। क्योंकि इस दौरान वह सैन्य सेवा के तहत देश से बाहर तैनात थे।