कोटद्वार। उत्तराखंड का सबसे दु:खद पहलू यही है कि प्रदेश प्राकृतिक जलस्रोतों से परिपूर्ण है, लेकिन कभी भी इन प्राकृतिक स्रोतों के संरक्षण की जहमत नहीं उठाई गई। सरकार हो अथवा सरकार के नुमाइंदे, मंचों से प्राकृतिक जलस्रोतों को बचाने के दावे तो हर कोई करता नजर आता है, लेकिन जब दावों को अमलीजामा पहनाने की बारी आती है तो नतीजा शून्य।
राज्य गठन के उपरांत कुछ विभागों ने वर्षा जल संरक्षण को कई योजनाओं पर कार्य तो किया, लेकिन भ्रष्टाचार की धूप ने योजनाओं के साथ ही स्रोतों को भी सुखा दिया। नतीजा, कोटद्वार ही नहीं, पूरे पहाड़ में लगातार पेयजल संकट गहरा रहा है और सरकारी तंत्र वैकल्पिक व्यवस्थाओं से पेयजल आपूर्ति में जुटा है।
मानव बस्तियों में भले ही वैकल्पिक व्यवस्थाओं से पानी का प्रबंध हो रहा हो, लेकिन वन क्षेत्रों में रहने वाले बेजुबानों के लिए पानी की यह किल्लत किसी अभिशाप से कम नहीं। हालात यह हैं कि पानी की तलाश में जानवर जंगल छोड़ बस्तियों की ओर आ रहे हैं।
अब कोटद्वार की वॉल ऑफ काइंडनेस संस्था ने इसी को देखते हुए जंगलों में तालाब बनाने की मुहिम शुरू की। पिछले एक वर्ष में संस्था लैंसडौन वन प्रभाग की कोटद्वार व दुगड्डा रेंज के जंगलों में दस तालाब बना चुकी है, जिनमें जानवर अपनी प्यास बुझा रहे हैं।
पहाड़ की तलहटी पर बसा है गढ़वाल का प्रवेश द्वार कोटद्वार। उत्तराखंड राज्य गठन से पूर्व क्षेत्र में बहने वाली खोह, सुखरो, मालन व कोल्हू नदियों से क्षेत्र में पेयजल आपूर्ति होती थी, लेकिन राज्य बना तो पेयजल की नई योजनाएं के रूप में हैंडपंप व नलकूप क्षेत्र की जनता के सामने आए।
नतीजा, क्षेत्र में जितने भी प्राकृतिक पेयजल स्रोत थे, वे सूखते चले गए। परिणाम मानव जाति के लिए भले ही पानी की व्यवस्था हो गई, लेकिन वनों में रहने वाले जंगली जानवर पानी की तलाश में मानव बस्तियों की ओर आने लगे और मानव-वन्यजीव संघर्ष की संभावनाएं भी बढ़ती चली गई।
वन महकमे की ओर से वन क्षेत्रों में छोटे-छोटे तालाब बनाकर इन तालाबों को टैंकरों से भरने की व्यवस्था की गई, लेकिन यह व्यवस्था वैकल्पिक ही साबित हुई। गर्मियों का मौसम शुरू होते ही जानवरों ने बस्तियों की ओर आना शुरू कर दिया।
ऐसे में वॉल ऑफ काइंडनेस संस्था ने वन्यजीवों को जंगल के भीतर ही पानी मुहैया कराने के लिए तालाब खोदने का निर्णय लिया। संस्था संस्थापक मनोज नेगी ने बताया कि कोटद्वार व दुगड्डा के मध्य वन क्षेत्रों में करीब तीस ऐसे स्थानों का चिह्नीकरण किया गया, जहां पुराने पेयजल स्रोत दम तोड़ चुके थे।