पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय द्वारा केंद्र और पंजाब सरकार को न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी को कानूनी दर्जा प्रदान करने पर विचार करने को कहा गया है। अदालत की इस टिप्पणी से एमएसपी का मुद्दा एक बार फिर चर्चा में है। न्यायालय ने वेयरहाउसिंग डेवलपमेंट एंड रेगुलेशन एक्ट को सख्ती से लागू करने संबंधी निर्देश भी राज्य सरकार को दिया है, ताकि किसान अपने अनाज को औने-पौने दाम पर बेचने को मजबूर न रहें। भंडारण क्षमता के अभाव में करीब 20 फीसद खाद्यान्न सड़-गल जाते हैैं। हालांकि यह पहला अवसर नहीं जब एमएसपी न मिलने तथा इनसे जुड़ी अनियमितताओं को लेकर न्यायालय ने टिप्पणी की हो। समय-समय पर सर्वोच्च एवं उच्च न्यायालयों द्वारा कृषि और ग्रामीण दुर्दशा की ओर सरकारों का ध्यान आकर्षित किया जाता रहा है। दुर्भाग्यवश समस्या जस की तस बनी हुई है। सरकारें बदल जाती हैं, लेकिन किसानों के हालात नहीं बदलते।विभिन्न राज्यों से निरंतर आती रही खबरों से स्पष्ट है कि किसानों को उनकी फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य नसीब नहीं हो रहा है। कृषि मंत्रालय तथा नीति आयोग भी स्वीकार चुके हैैं कि अधिकांश किसान घोषित एमएसपी तक से वंचित रह जाते हैं। कृषि उत्पादों के दाम तय करने वाले कृषि लागत एवं मूल्य आयोग यानी सीएसीपी द्वारा लागत मूल्य तय करने वाली प्रक्रिया लंबे समय से सवालों के घेरे में रही है। इसकी मुख्य वजह है लागत मूल्य निर्धारण प्रक्रिया। पिछले बजट में केंद्र सरकार द्वारा फसलों के दाम डेढ़ गुना किए जाने का वादा जरूर निभाया गया है, लेकिन एमएस स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश, जिसमें सी-2 फॉर्मूले के तहत लागत मूल्य निर्धारित किए जाने की संस्तुति की गई थी, अब तक पूरी नहीं हो पाई है।मौजूदा लागत मूल्य निर्धारण प्रक्रिया में ए2-एफएल को आधार बनाकर फसलों की लागत मूल्य के अनुपात में एमएसपी बढ़ाया गया है, जबकि सी-2 प्रणाली को आधार मानकर लागत के अतिरिक्त 50 फीसद का न्यूनतम समर्थन मूल्य किसान संगठनों की मांग रही है। प्रक्रिया ए2-एफएल के तहत खेती में प्रयुक्त बीज, उर्वरक, कीटनाशक, मजदूरी, मशीनों का किराया तथा पारिवारिक श्रम शामिल होते हैैं, जबकि ‘व्यापक लागत’ यानी सी-2 व्यवस्था के तहत अन्य लागतों के साथ स्वयं की भूमि का किराया भी शामिल किया जाता है जो ए2-एफएल से अधिक व्यापक होता है। इस प्रक्रिया के तहत लागत मूल्य निर्धारण करने से किसानों को मिलने वाले दाम और मौजूदा व्यवस्था के तहत मिलने वाले दाम में बड़ा अंतर है। यही कारण है कि किसान लगातार इसकी मांग करते आ रहे हैं।चूंकि किसानों से फसल खरीदने के लिए एक मूल्य नीति की आवश्यकता थी, इस दिशा में कृषि मूल्य आयोग की स्थापना की गई जो आज सीएसीपी के रूप में मौजूद है और मुख्य रूप से कृषि उत्पादों का दाम निर्धारित करता है। मूल्य समर्थन नीति के बाद ही किसानों को उनके उत्पादों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की सरकारी गारंटी मिल पाई, लेकिन लागत मूल्य के सही आकलन और सबको एमएसपी मिले, इसे सुनिश्चित करने की प्रक्रिया के दोषपूर्ण होने के कारण इसकी सार्थकता हमेशा से सवालों के घेरे में रही है। शांता कुमार की रिपोर्ट में वर्षों पहले यह बात कही जा चुकी है कि सरकार को अपनी एमएसपी नीति में बदलाव करने की जरूरत है। इसी रिपोर्ट में यह तथ्य सामने आ चुका है कि देश के मात्र छह फीसद किसान ही किसी खरीद एजेंसी को अपना धान एवं गेहूं बेचकर एमएसपी से लाभान्वित हो पाते हैं। मौजूदा स्थिति में एमएसपी को लेकर इतना शोरगुल इसीलिए है, क्योंकि किसानों को एमएसपी के आसपास की कीमत भी नहीं मिल पा रही। इस दिशा में जरूरत है कि सरकार भंडारण एवं वेयरहाउसिंग की सुविधा को दुरुस्त करने के साथ एफसीआइ के कामकाज के तरीके को भी सुदृढ़ करने पर जोर दे।समझना होगा कि कृषि सामग्री समेत उपभोग की अन्य वस्तुओं की कीमतों में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है, परंतु उसके समानुपातिक कृषि उत्पादों की कीमतों में वृद्धि नहीं हो पाई है। वर्ष 1994 से 2014 के आंकड़ों के अनुसार कर्मचारियों के वेतन में 300 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। स्टील, सीमेंट, कपड़े, आवासीय व्यय, खाद्य पदार्थों, शिक्षा, चिकित्सा आदि मूलभूत आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में भी लगभग 300 प्रतिशत तक का इजाफा देखा गया है।रासायनिक खादों के दाम 300 रुपये से बढ़कर 1100 रुपये तक हो गए हैं, कीटनाशकों की कीमत में भी लगभग चार से पांच गुना तक की बढ़ोतरी हुई है, लेकिन कृषि उत्पादों की कीमतों में औसतन 75 से 80 फीसद तक की ही बढ़ोतरी हो पाई है। यह बढ़ती महंगाई के समानांतर नाकाफी है। इस सूरत में ग्रामीण संरचना कमजोर होती जा रही है। प्रतिवर्ष लगभग 30 हजार हेक्टेयर कृषि भूमि खेती के दायरे से घटती जा रही है। किसान बहुत तेजी से मजदूर बनते जा रहे हैं। एक अध्ययन के मुताबिक 86 प्रतिशत भू-मालिक किसान और लगभग 80 फीसद मजदूर किसान कर्ज में डूबे हैं। आत्महत्याओं पर काबू नहीं पाया जा सका है। ऐसे में कृषि उद्योग की लाभकारी परिकल्पना के तहत खेतिहरों को संपूर्ण सुरक्षा की गारंटी दी जानी चाहिए।प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना के तहत दो हेक्टेयर भूमि वाले किसानों को प्रतिवर्ष छह हजार की सहायता राशि उत्साहवर्धक है। सीधे कृषकों के खाते में जाने से किसान लाभान्वित हुए हैं। ऐसा ही कुछ बीमा योजना के संबंध में भी किए जाने की जरूरत है। गत वर्ष एक निजी बीमा कंपनी द्वारा महाराष्ट्र के सिर्फ एक जिले से लगभग 143 करोड़ रुपये की कमाई की खबर सुर्खियों में रही थी। ऐसी बीमा सुविधाएं किसानों के लिए हितकारी कैसे हो सकती हैं? सख्त निगरानी में फसलों की क्षति का सही मूल्यांकन न हो पाने से बीमा किसानों के लिए घाटे का सौदा बन रहा है।राहत की बात है कि बीते पांच वर्षों में किसानों से जुड़े मुद्दे चर्चा के केंद्र में रहे हैं। इस दौरान कई कल्याणकारी योजनाओं का सफल क्रियान्वयन हुआ, लेकिन लंबे समय से कृषि जगत के प्रति बरती गई उदासीनता पर विराम लगाने के लिए खेती-किसानी में उत्साह भरने की इस समय सख्त जरूरत है। पूर्ववर्ती सरकारों की मनोवृत्ति और रवैया इस सरकार में नहीं दिखना चाहिए, ऐसी किसानों की अपेक्षाएं हैं।