अल्काज़ी साहेब न होते तो हम क्या बनते, पता नहीं

किसी उस्ताद की कामयाबी के पैमाने क्या हो सकते हैं? यह एक कठिन सवाल है. मगर क्या एक पैमाना यह नहीं हो सकता है कि उस उस्ताद ने समाज, देश व दुनिया को किस तरह की विरासत सौंपी? उनके तैयार लोग क्या कर रहे हैं? वे अपनी विधा में कितने माहिर बने और उस विधा को कैसे आगे बढ़ा रहे हैं? क्यों, कई पैमानों में एक अहम पैमाना तो यह हो ही सकता है.

अगर किसी रंगमंच के उस्ताद के हाथ से गढ़े लोगों में मनोहर सिंह, उत्तरा बाओकर, रामगोपाल बजाज, बव कारंथ, एमके रैना, ओम पुरी, नसीरूद्दीन शाह, रोहणी हट्टंगड़ी, सुरेखा सिकरी, केके रैना, पंकज कपूर, रंजीत कपूर, ओम शिवपुरी, सुधा शिवपुरी, नादिरा ज़हीर बब्बर, भानु भारती, बंसी कौल, रतन थिएम, जयदेव हट्टंगड़ी, राजेश विवेक, प्रसन्ना, राज बब्बर, रघुवीर यादव, रॉबिन दास, राजेंद्र गुप्ता, अमाल अल्लान, कीर्ति जैन जैसे अनेक रंगकर्मी, अभिनेता, नाट्य निर्देशक, रंग डिज़ायनर, रंग चिंतक शामिल हों तो उस उस्ताद को क्या कहेंगे? उस उस्ताद को क्या कहेंगे जिसके प्रशिक्षण और काम के तौर तरीकों ने आज़ादी के बाद के आधुनिक भारतीय रंगमंच पर अमिट छाप डाली?

जी, उस उस्ताद को इब्राहिम अल्काज़ी ही कहेंगे.

दिल्ली में मंगलवार को 94 साल की उम्र में उन्हीं इब्राहिम अल्काज़ी का निधन हो गया. इब्राहिम अल्काज़ी सबसे कम उम्र में सबसे ज़्यादा वक़्त तक राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) के निदेशक रहे. लेकिन सन 1962 से 1977 तक वे महज़ एक निदेशक ही नहीं थे. वे अपने स्टूडेंट को अनुशासित पेशेवर रंगकर्मी बना रहे थे. राष्ट्रीय नाट्य विश्वविद्यायलय के रंगमंडली को स्थापित करने और प्रतिष्ठा दिलाने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है.

उनके किसी भी स्टूडेंट से बात करें, वे इन बातों को बार-बार दोहराएंगे. इन सबकी बातों से ऐसा अहसास होने लगता है कि अल्काज़ी साहेब ने तो इनके डीएनए में ही रंगकर्म का जीवन सूत्र जोड़ दिया है. हमने उनके चार दिग्गज शागिर्दों से बात की. इनकी बातें बहुत हद तक उन्हें समझने में मददगार बन सकती हैं. उनके ये स्टूडेंट इस वक़्त ख़ुद ही भारतीय रंगमंच के नामचीन रंगकर्मी हैं.

आधुनिक भारत का एक स्तम्भ थे… नवजागरण वाली शख़्सियत

साल 2010 में राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल से पद्म विभूषण लेते इब्राहिम अल्काज़ी.

लोगों के ज़हन में पहला सवाल उभरता है कि अल्काज़ी साहेब विदेश में थे तो एनएसडी कैसे पहुँचे. इसका जवाब उनके एक स्टूडेंट मशहूर रंगकर्मी एमके रैना देते हैं.

वे बताते हैं, “आज़ादी के बाद नया हिन्दुस्तान बनाने के लिए बहुत सारे नौजवान आगे आये. इनमें वैज्ञानिक, इंजीनियर, कलाकार. सब तरह के लोग थे. कई विदेशों से बेहतरीन काम छोड़ कर आये. इनका ख्वाब था कि आधुनिक और वैज्ञानिक चेतना से लैस हिन्दुस्तान बनाना है. नयी संस्थाएँ बन रही थीं. इनमें से कई ने उनको संभाला. इनमें आधुनिक कला और रंगमंच के क्षेत्र में अल्काज़ी साहेब भी थे.”

इसलिए रैना कहते हैं, “आधुनिक भारत का एक स्तम्भ चला गया. मैं उन्हें नवजागरण का इंसान मानता हूँ.”

आषाढ़ का एक दिन यानी चेंजिंग द गेम

‘आषाढ़ का एक दिन’ का दृश्य

एनएसडी के पूर्व निदेशक रामगोपाल बजाज याद करते है, “हम लोग अल्काज़ी साहेब के साथ पहला बैच थे. उसी साल यानी 1962 में ही उन्होंने मोहन राकेश का ‘आषाढ़ का एक दिन’ नाटक किया. उस प्रस्तुति से यह ज़ाहिर हो गया कि वे सिर्फ अंग्रेज़ी या ग्रीक नाटकों के ही बड़े निर्देशक नहीं हैं. वह किसी भी हिन्दुस्तानी नाटक को छुएं तो कमाल पैदा हो सकता है. ”

“ये नाटक दूसरे साल के स्टूडेंट के साथ हुआ था. इसमें ओम शिवपुरी जैसे कलाकार थे. ये उस वक़्त कोई मँझे हुए कलाकार नहीं थे. मेरी राय में हिन्दुस्तानी थिएटर में यह नाटक ‘चेंजिंग द गेम’ था.”

बतौर टीचर. ग्रेट. नायाब. अद्भुत

नाटक ‘अंधा युग’ का एक दृश्य

एनएसडी की पूर्व निदेशक और उनकी स्टूडेंट कीर्ति जैन कहती हैं, “वे टीचर के तौर पर बहुत ग्रेट थे. थिएटर के सभी पहलुओं की बहुत ठोस जानकारी थी. चाहे निर्देशन की बात हो या फिर नाटक के कथ्य की या फिर वेशभूषा और परिधान की या फिर डिज़ाइन की. रिसर्च की क्या अहमियत है. इतिहास को कैसे पेश करना है. उनकी पढ़ाई में ये सब समग्र रूप से आता था. वे जिस तरह की समग्र दृष्टि देते थे या बारीकियों पर ध्यान देते थे- उससे हमने बहुत कुछ सीखा.”

नसीरूद्दीन शाह, ओम पुरी, भानु भारती, जयश्री के साथ पढ़ने वाले अल्काज़ी साहेब के एक स्टूडेंट मशहूर नाट्य निर्देशक- रंग डिज़ायनर बंसी कौल भी हैं. इन सबके साथ अल्काज़ी साहेब ने तुग़लक, अंधा युग, थ्री सिस्टर्स, रज़िया सुल्तान, थ्री पेन्नी ओपेरा… जैसी कई नामचीन प्रस्तुतियाँ कीं.

बंसी कौल बताते हैं, “बहुत ही अद्भुत टीचर थे. जब पढ़ाते थे तो लगता था कि आप पूरा नाटक देख रहे हैं. दूसरी खिड़की खोल दी. हम अपने देश के अलावा दुनिया के रंगमंच से रूबरू हो सके.”

नाटक ‘अंधा युग’ का निर्देशन अल्काज़ी ने 1974 में किया था.

एमके रैना उनके शिक्षण- प्रशिक्षण को इस तरह पेश करते हैं, “नायाब टीचर थे. उनके ध्यान में 24 घंटे स्टूडेंट ही रहते थे. वे ध्यान देते थे, कौन क्या पढ़ रहा है? लाइब्रेरी से क्या किताबें ले रहा है? उन्हें पता था कि हममें से कई लोग कस्बों या छोटे शहरों से आ रहे हैं. वे उनकी परेशानियों को ख़ुद देखते थे. अगर कोई कमज़ोर दिखता तो हॉस्टल में आकर उसे पढ़ाते थे. यानी छोटी सी छोटी बातों से लेकर व्यापक दृष्टि रखने वाले टीचर थे.”

अब्राहिम अल्काजी की पढ़ाई क्लास रूम तक ही सिमटी नहीं थी. बंसी कौल बताते हैं, “हमारा स्कूल दो-तीन बजे तक चलता. और तीन बजे के बाद पूरा स्कूल रिपेर्टरी यानी ड्रामा कम्पनी बन जाती थी. तीन बजे के बाद वाले ‘क्लास’ ने सभी को रंगकर्म की बारीकियाँ सिखायीं.”

देखते- दिखाते, सीखते- सिखाते. मुकम्मल शख्सियत बनाते

‘डैंटों डेथ’ नाटक के एक दृश्य में ओम पुरी

कीर्ति जैन कहती हैं, “वे कैसे टीचर थे, इसका एक नमूना बताती हूँ. जैसे, वे अक्सर कहते कि इस इतवार मैं जामा मस्जिद इलाके में लगने वाली पुरानी किताबों के बाज़ार जा रहा हूँ. अगर किसी को चलना है तो मेरे साथ चल सकता है. हम साथ जाते. हम देखते थे कि वे उन पुरानी किताबों की ढेर से क्या उठाते हैं? कैसे देखते हैं? वे हमें उन किताबों के बारे में बताते. वे किताब खरीदते और हम लोगों में बाँट देते थे. कहते थे, इसे देखो. पढ़ो. डिज़ाइन की बात बताते. लाइन कैसे मिलाते हैं, यह समझाते. दीवार पर अल्बम में दो तस्वीर लगायेंगे तो कैसे सजा कर मिलायेंगे. वे बताते.”

राम गोपाल बजाज उनके सिखाने का एक और पहलू याद करते हैं. उनके मुताबिक, अल्काज़ी साहेब में जानने का जज़्बा जबरदस्त था. उन्होंने हिन्दी कविता के बारे में जानने के लिए मुझे सुबह पाँच बजे अपने घर बुला लिया. हिन्दी के जिन शब्दों के मायने नहीं आते, उसे पूछते. नोट करते. इस तरह वे हम जैसे अपने स्टूडेंट में भी सीखने की शिद्दत पैदा कर रहे थे. साथ ही वे बता रहे थे कि विश्व साहित्य या ड्रामा के साथ अपने साहित्य को भी देखो. अपनी परम्परा को भी जानो.’

एमके रैना बताते हैं, “वे स्टूडेंट की मुकम्मल शख्सियत बनाने पर काम करते थे. सिर्फ एक्टिंग के टेक्निक ही नहीं सिखाते थे बल्कि साहित्य, कला, पेंटिंग, लोक कला रूपों को समझना सिखाते थे. दुनिया के रंगमंच से परिचय कराते थे. इसीलिए हमें अहसास होता था कि हम किसी बड़े काम का हिस्सा बन रहे हैं.”

लोक परम्परा और आधुनिक रंगमंच के बीच पुल

साल 1972 में मंचित नाटक ‘तुग़लक’ का दृश्य.

उन पर पश्चिमी शैली का रंगकर्मी होने का आरोप भी लगता है. मगर एमके रैना एक अलग तस्वीर पेश करते हैं.

वे कहते हैं, “लोक शैली, लोक नाट्य परम्परा और आधुनिक रंगमंच के बीच कैसे पुल तैयार किया जाए, इस पर भी उन्होंने काम किया. वे सिर्फ इन्हें पढ़ाते नहीं थे बल्कि हर साल लोक शैली में एक नाटक की प्रस्तुति होती थी. इसका निर्देशन वे ख़ुद नहीं करते थे. इस काम के लिए वे उस दौर के सबसे कद्दावर लोगों को लेकर एनएसडी आए. यक्षगान के लिए कर्नाटक से शिवराम कारंत जैसी हस्ती आए. वे छह महीने एनएसडी में रहे.”

“नौटंकी के लिए गिर्राज किशोर ने नौ महीने एनएसडी के साथ काम किया. इसी तरह दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से लोग आए और हमने सीखा. अलग-अलग विधाओं के उस वक़्त के कई महान कलाकारों के काम से उन्होंने रूबरू कराया. अंतरराष्ट्रीय दृष्टि के साथ आधुनिक भारत की दृष्टि कैसे मिलाई जाए. ये उनका ख्वाब था.”

हालाँकि, बंसी कौल ध्यान दिलाते हैं कि उस वक्त भारत में शंभु मित्र, उत्पल दत्त, हबीब तनवीर जैसे कई लोग अच्छा रंगकर्म कर रहे थे. एनएसडी का इन जैसे रंगकर्मियों से भी सम्बंध बनता तो और बेहतर होता.

रंगकर्मी को स्टेज पर चूक करने की छूट नहीं

उनके साथ काम करने वाले किसी शख्स से बात करें, वे एक चीज़ का ज़िक्र सबसे पहले करते हैं. वह है, उनका सख़्त अनुशासन. एमके रैना इसे इस तरह देखते हैं, “उनका मानना था कि अगर पेशेवर कलाकार बनना है तो किसी भी तरह की रियायत नहीं है.”

अनुशासन ने इन सभी स्टूडेंट के बाद के काम और निजी ज़िंदगियों पर भी गहरा असर डाला. वे इसे नकारते नहीं हैं. इसीलिए बंसी कौल इस अनुशासन को एक अलग नज़रिये से देखते हैं, “हम छोटे शहरों से आये थे. मस्तमौला लोग थे. इसलिए कई बार हमें उनका अनुशासन कड़ा लगता था. सम्पन्न घरों के लोगों का एक अलग अनुशासन होता है. हमारी वैसी आदत नहीं थी. एनएसडी आकर हम एक ख़ास अनुशासन में आये.”

वे कहते हैं, “सफाई रखना हो या सलीके से रहने का तौर-तरीका- हमने उनसे जाना. हालाँकि, हमारा भी अपना सलीका था. वे अक्सर हॉस्टल आ जाते थे. उनकी वजह से हम सब अपने कमरों को ठीक से रखते. बाथरूम साफ कर चमकाते थे. अपने कपड़े साफ़ रखते थे. इन सबका हमें बाद में फायदा हुआ. हम आज अपने घरों में सामान या किताबें ठीक से रखने की कोशिश करते हैं. सब कुछ तरतीबवार करने और रखने की आदत हमने उनसे ही ली. यहाँ तक कि सफ़ाई से कागज़ काटना, उनसे ही सीखा.”

कीर्ति जैन के मुताबिक, “उनके पास सौंदर्य का समग्र नज़रिया था. वे हर काम सटीक तरीके से करने में यक़ीन रखते थे. वे गलतियाँ एकदम बर्दाश्त नहीं करते थे. उनका एक्टर यह नहीं कर सकता था कि उसका तल्लफ़ुज़ गड़बड़ हो जाए. वे ख़ुद भी मेहनत करते थे और करवाते थे. उनका मानना था कि स्टेज पर एक्टर का आना हो, लाइट या साउंड हो. सब तय वक़्त पर सटीक तरीके से होना चाहिए. ज़रा-सी देरी होने पर डाँट पड़ जाती थी. हमने उनसे सीखा कि बतौर रंगकर्मी यह सब करने की छूट हमारे पास नहीं है.”

बंसी कौल एक घटना याद करते हैं, “हम हरियाणा के दौरे पर थे. चंडीगढ़ के पिंजोर गार्डन में नाटक था. हममें से कुछ लोग तय वक़्त पर अपनी एंट्री भूल गये. अल्काज़ी साहेब के डर से हमारी हालत ख़राब थी. हमें पता चला कि वे लाइट बूथ पर हैं. नाटक खत्म होने के बाद हमने लाइट बूथ से स्टेज का मुआयान किया. जब हमें लग गया कि लाइट बूथ से स्टेज का वह हिस्सा साफ नहीं दिख रहा था, जहाँ हमसे चूक हुई है तो हमने राहत की साँस ली. फिर निडर होकर उनके सामने गये.”

ऐसे अनेक किस्से उनके शागिर्दों के पास हैं.

अनुशासन कभी शागिर्दों से लगाव के आड़े नहीं आया

नाटक ‘किंग लियर’ का एक दृश्य

लेकिन अपने शागिर्दों के साथ उनका लगाव जबरदस्त रहा. बजाज साहेब बताते हैं कि कैसे जब वे और उनके दोस्तों ने अपनी नाट्य संस्था ‘देशांतर’ बनायी तो अल्काज़ी साहेब ने उनके लिए बादल सरकार के हिरोशिमा पर आधारित नाटक का निर्देशन किया.

एमके रैना कुछ निजी अनुभव साझा करते हैं. वे कहते हैं, “मुझे याद है, पूरे हिन्दुस्तान में एक ही आदमी था जिसने कश्मीर से हमारे परिवार के उखड़ने के बारे में मुझसे अलग से बात की. उन्होंने मुझसे पूछा, क्या हुआ तुम्हारे खानदान का? वे हमारी जिंदगी की छोटी-छोटी बातों पर नज़र रखते थे.”

एमके रैना के नाटक पर इमर्जेंसी के दौरान पाबंदी लगी थी. वे बताते हैं, “उन्हें बेहद बुरा लगा. मुझे बुलाया. बात की. कहा, हम मिसेज़ गांधी से जाकर बात करेंगे. इस नाटक पर पाबंदी नहीं लगनी चाहिए.”

संसाधन का टोटा लेकिन एनएसडी को खड़ा कर दिया

इब्राहिम अल्काज़ी ने जिस दौर में एनएसडी की कमान संभाली, उस दौर में संसाधन का बेहद टोटा था. बजाज साहेब कहते हैं, जो बजट मिल जाता था, उसी में काम करते थे.

एम के रैना के मुताबिक़, “उनके लिए कम बजट कभी रुकावट नहीं बनी. वे आर्किटेक्ट थे, पेंटर थे, निर्देशक, डिजाइनर थे. अपने इन सब ज्ञान का इस्तेमाल उन्होंने रंगमंच पर किया.”

वे याद करते हैं, “उन दिनों स्कूल तीन-चार कमरों में ही चलता था. उन्हीं कमरों में उन्होंने एक छोटा सा स्टेज ख़ुद ही डिज़ाइन किया. इसमें 75 सीटें थीं. इसी में किंग लियर होता है. मौलियर और चेख़व के नाटक होते हैं. आमतौर पर ऐसे नाटकों के लिए काफ़ी बड़े-बड़े सेट लगते.”

बजाज साहेब बताते हैं, “उस दौर में यह कमरा थिएटर के लिए बहुत अहम जगह बन गयी थी.”

बजाज और रैना दिल्ली के ‘मेघदूत’ थिएटर के बनने का किस्सा भी नहीं भूले हैं. रैना बताते हैं, “कई हफ़्ते श्रम करके हमने एक पेड़ के नीचे एक थिएटर बनाया. उन्होंने हम सबसे मज़दूरी करवायी. मिट्टी उठवायी. ख़ुद मज़दूरी की. अपने सर पर ईंट की टोकरी उठाते थे. उन्होंने वहाँ प्रेमचंद के उपन्यास ‘गोदान’ का नाट्य रूपांतरण ‘होरी’ के नाम से किया और इसका निर्देशन किया. वह धीरे-धीरे बनता और बढ़ता गया. उसी थिएटर का नाम मेघदूत हो गया.”

नाटक ‘होरी’ का एक दृश्य

कई लोग प्रस्तुति का रिश्ता संसाधन से भी जोड़ते हैं. इसीलिए एमके रैना ध्यान दिलाते हैं कि बजट की कमी के बावजूद चाहे पुराना किला में होने वाली प्रस्तुति हो या तालकटोरा स्टेडियम या फिर मेघदूत में. उनकी प्रस्तुतियों की भव्यता निराली होती थी. आज संसाधन रहने के बावजूद ड्रामा स्कूल में ऐसी प्रस्तुतियाँ कहाँ हो रही हैं?

हिन्दी पट्टी में रंगमंच के लिए इज़्ज़त पैदा की

कीर्ति जैन उनके योगदान के एक और पहलू की ओर ध्यान खींचती हैं.

वे बताती हैं, “जिस दौर में वे आए, ख़ासतौर पर हिन्दी पट्टी में उस दौर में रंगमंच के लिए विशेष आदर नहीं था. उन्होंने दिल्ली के दर्शकों के मन में रंगमंच के लिए सम्मान पैदा किया. उन्होंने इसके लिए कई तरीके अपनाये. वे जो नाटक करते थे, दर्शकों को उसमें जबरदस्त पेशेवर सफाई और गंभीरता दिखी. लोग अचम्भा करते थे कि ऐसा भी थिएटर हो सकता है. वे ख़ुद गेट पर खड़े होते थे. अगर कोई दर्शक एक मिनट भी लेट होता तो बड़ी विनम्रता से उसे मना कर देते थे. नाटक के दौरान कोई बात नहीं कर सकता था या खा नहीं सकता था. इसकी वजह से कम से कम दिल्ली में नाटक की देखने का तौर-तरीका बदला. नाटक का सौंदर्यशास्त्र बदला.”

और किसे क्या मिला.

‘डैंटों डेथ’ नाटक का एक दृश्य

बकौल बजाज साहेब, “एक तरफ उनका रचनात्मक पक्ष था . इसमें उनकी गहरी लगन, जुनून, रचनात्मक नज़रिया साफ दिखता था. और दूसरी ओर मिलिट्री जैसा अनुशासन. काम की वह शिद्दत हमें मिली. वह हमारी पूँजी बन गयी. अल्काज़ी साहेब न होते तो हम क्या बनते, पता नहीं.”

बकौल एम के रैना, “वे मेरे मेंटर थे. मुझे थिएटर की जो दृष्टि मिली है, वह उन्हीं से मिली है.”

रैना बताते हैं, “वे कहा करते थे कि अगर इस देश में कुछ करना है तो पहले खुद करना होगा- लीड फ्रॉम फ्रंट. किसी और पर नहीं छोड़ना.

रैना के मुताबिक, “अल्काज़ी साहेब बताते थे कि जब मैं एनएसडी आया तो यहाँ शौचालय पान के पीक से भरे होते थे. कई बार नोटिस निकाला लेकिन कोई फ़र्क नहीं पड़ा. एक दिन मैं ख़ुद ही सफ़ाई का सामान लेकर आया. अपने हाथों से सफ़ाई की. तीन दिनों तक किया तब सबको समझ में आया कि मैं मानने वाला नहीं हूँ. फिर सफाई शुरू हो गयी. रैना कहते हैं कि ये नसीहतें मेरे लिए बहुत काम की हैं यानी पहले आप ख़ुद मिसाल बनेंगे तब ही लोग काम करेंगे.”

नाटक ‘अंधा युग’ का एक अन्य दृश्य

बंसी कौल ख़ुद पर उनकी रचनात्मकता के असर का ज़िक्र करते हैं. वे कहते हैं, “वे बहुत बड़े डिज़ाइनर थे. उन्होंने डिज़ाइन को नया आयाम दिया. ऐतिहासिक धरोहरों को कैसे इस्तेमाल किया जाए, हमें सिखाया. चीजों को बड़े स्तर पर और बड़े अंदाज़ में कैसे करना, मैंने उनसे सीखा. उनके काम में बड़ी सफ़ाई थी…उनका डिजायन बड़ा तो होता लेकिन उसमें चीजों की अति नहीं होती थी. रिप्रजेंटेशनल होता था. वह प्रस्तुति पर हावी नहीं होता था. वे दृश्यों की भाषा बनाते थे.”

इसलिए वे कहते हैं, “वे ऐसे डायरेक्टर थे जो हर चीज़ को राइट एंगिल यानी 90 डिग्री पर देखते थे. हमारे आदत और डिजाइन में यही राइट एंगिल आ गया.”

अल्काज़ी साहेब के काम ने कैसा असर डाला है, बकौल कीर्ति जैन, “उनकी ढेर सारी ऐसी चीजें ऐसी हैं, जो दिमाग में घुस गयी हैं. कई बार तो उन चीजों को करते हुए याद ही नहीं रहता है कि अल्काज़ी साहेब ने यह बताया था.”

नाटक ‘रक्त कल्याण’ का निर्देशन अल्काज़ी ने साल 1992 में एनएसडी में किया था.

उनके ये सारे शागिर्द याद करते हैं कि वे कितने अच्छे पेंटर थे. कीर्ति जैन बताती हैं कि “कुछ दिनों पहले हमने उनकी शानदार प्रदर्शनी भी देखी. उनकी विजुअल समझ बहुत ज़बरदस्त थी. इसका असर उनके नाटकों में देखने को मिलता है.”

बजाज साहेब याद करते हैं कि हमारे नाटकों के रिहर्सल में भी उस वक़्त के नामचीन पेंटर आया करते थे. बंसी कौल कहते हैं, “वे पेंटर के नज़र से डिज़ाइन को देखते थे.”

उन्होंने अल्काज़ी फाउंडेशन फ़ॉर द आर्ट्स एंड आर्ट हेरिटेज की स्थापना की. इसके ज़रिए उन्होंने कला के अलग अलग रूपों को सँजोने का भी काम शुरू किया है. बकौल एमके रैना “वह नायाब है.”

जो शागिर्द नहीं थे लेकिन एकलव्य बने.

लेकिन जो रंगकर्मी अल्काज़ी साहेब के शागिर्द नहीं थे, जो दिल्ली में नहीं थे, जिनका उनके रंगकर्म से सीधे वास्ता नहीं पड़ा, उनके लिए भी वे क्या हैं?

नाट्य निर्देशक परवेज़ अख्तर इस सवाल का जवाब देते हैं, “सन 1977-78 में बव कारंथ वह पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने अल्क़ाज़ी साहेब और उनके महत्व से परिचित कराया. हालाँकि कारंथ जी, इब्राहिम अल्क़ाज़ी की पश्चिमी नाट्य- अवधारणा और कला-दृष्टि से सहमत नहीं थे, फिर भी उनका हर व्याख्यान और रंगमंच सम्बन्धी वक्तव्य अल्क़ाज़ी के ज़िक्र के बिना पूरा नहीं होता था. नाट्य कला के प्रति उनकी प्रतिबद्धता और नाट्य सौन्दर्य की समकालीन चेतना ने मुझे गहराई से प्रभावित किया.”

परवेज़ अख्तर याद करते हैं कि कैसे ‘तुग़लक़’, ‘अंधायुग’ और ‘आषाढ़ का एक दिन’ में अभिनय करते हुए उन्हें उनकी निर्देशकीय टिप्पणियों को पढ़ने का मौका मिला और उनकी नाट्य-अवधारणा से वे परिचित हुए.

वे कहते हैं, “समय के साथ मुझे लगा कि इब्राहिम अल्क़ाज़ी पर पश्चिम-परस्त का तमग़ा नाहक ही लगाया गया. उनका प्रशिक्षण भले ही पश्चिम में हुआ, लेकिन वे भारतीय रंगमंच की पहचान और निजी नाट्य-भाषा के महत्व को रेखांकित करने की दिशा हमेशा लगे रहे. मैं तो उन्हें भारतीय रंगमंच में समकालीनता, कोमल संवेदनाओं और आधुनिक नाट्य-सौन्दर्य के अग्रदूत की तरह देखता हूँ.”

इनके जवाब में भी अल्काज़ी साहेब के काम की ताक़त देखी जा सकती है.

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