-उत्तराखण्ड में “झाँपू” सरकार नही तो क्या है!
देहरादून। बात उत्तराखंड के एक बेबस बाप, लाचार मां, मरहूम बेटे और “झाँपू” स्वास्थ्य सेवाओं की है।
ये हकीकत है उत्तराखंड की! अगर हिम्मत है तो एक बार सोच कर देखिए कि एक मां ने बस अड्डे के सार्वजनिक शौचालय में एक नवजात को जन्म दिया। तीन घंटे बाद नवजात की मौत हो गई। पति इस हालत पर रो रहा था और समाज ये सोचकर ही दंग था। बस अड्डे का शौचालय क्या होता है! जहां कोई भी आकर पेशाब करता है, पान थूकता है, गुटखा थूकता है। उस बदबू से भरे माहौल में मर्द भी 10 सेकंड नहीं रुक पाते, वैसे माहौल में एक मां एक बच्चे को जन्म दे रही थी। ज्यादा दूर नहीं ये उत्तराखण्ड के नैनीताल जिले के “हल्द्वानी” की बात है।
चोरगलिया के रहने वाले भुवन चंद्र परगाईं की पत्नी हेमा परगाईं 8 महीने से गर्भवती थी। महिला अस्पताल में हेमा का इलाज चल रहा था। शनिवार को सुबह 11 बजे भी हेमा के पति उसे लेकर महिला अस्पताल लेकर गए थे। 8 महीने की गर्भवती के लिए कहा गया कि बाहर जाओ और अल्ट्रासाउंड करवाकर आओ। इतना होश नहीं आया कि कभी भी कुछ भी हो सकता है। खैर बेबस हेमा अपने पति भुवन के साथ अल्ट्रासाउंड करवाने गई। इसके बाद वापस लौटे तो डॉक्टर ने दवाएं दीं और उसकी पत्नी को घर ले जाने को कहा। भुवन का कहना है कि वो अपनी पत्नी के साथ रोडवेज स्टेशन पहुंचा। यहां से ही हेमा को प्रसव पीड़ा शुरू हो गई। लाचार भुवन क्या कर सकता था। वो पत्नी को लेकर रोडवेज के सार्वजनिक शौचालय ले गया। यहां हेमा ने एक बच्चे को जन्म दिया। इस सूचना के बाद तो हड़कंप ही मच गया।
शौचालय संचालकों और राहगीरों की मदद से पत्नी और नवजात को किसी तरह महिला अस्पताल पहुंचाया। महिला अस्पताल में जच्चा बच्चा का सही ढंग से ईलाज नहीं हुआ और नवजात की हाल बिगड़ने की बात कही गई। बेतहाशा इधर उधर भागते भुवन को लोगों ने बताया कि सुशीला तिवारी अस्पताल ले जाओ। वो इसके बाद अपनी पत्नी और बच्चे को लेकर सुशीला तिवारी अस्पताल पहुंचा। वहां डॉक्टरों ने बच्चे को मृत घोषित कर दिया। अब बजाओ तालियां..अब जश्न मनाओ…अब फूंको वादों का बिगुल..अब कहो जननी सुरक्षा योजना की बातें। जननी सुरक्षित नहीं, असुरक्षित है जनाब।
एक मां शायद उस घड़ी को कभी नहीं भूल पाएगी लेकिन उत्तराखंड बहुत जल्द ही इस बात को भूल जाएगा। अगर आप चुप हैं तो समझ लीजिए कि शायद अगला नंबर आपका ही है। पूछिए सवाल उन बेपरवाह सफेदपोशों से, जो इसके जिम्मेदार हैं। अब “मां-बच्चे को बचाओ”, “बेटी-बचाओ” या “उत्तराखण्ड बचाओ”!
अब आप ही सोचिए उत्तराखण्ड में “झाँपू” सरकार नही तो क्या है!