देहरादून: भले ही सूबे के मुख्यमंत्री कुपोषण के खिलाफ जंग में ‘ऊर्जा’ पुष्टाहार को देश का पोषाहार ब्रांड बनाने में जुटे हों। मगर हैरानी की बात है कि इस पोषाहार की ऊर्जा पिछले तीन महीने से खत्म हो रखी है। दरअसल, बजट की तंगी के चलते स्वयं सहायता समूह पहाड़ी उत्पादों की खरीद नहीं कर पा रहे हैं। इससे आंगनबाड़ी केंद्रों में कुपोषण से ग्रसित पांच साल से कम उम्र के बच्चों को पौष्टिक ‘ऊर्जा’ पाउडर ही नहीं मिल पा रहा है। ऐसे में सवाल उठता है कि जब प्रदेश में ही ‘ऊर्जा’ योजना कारगर साबित नहीं होगी तो फिर दूसरे राज्य इसे क्यों अपनाएंगे।
प्रदेश में कुपोषण को खत्म करने के मकसद से ‘ऊर्जा’ योजना शुरू की गई है। इसमें मंडुआ, सोयाबीन, चौलाई, भट्ट समेत कई अन्य पहाड़ी पौष्टिक उत्पादों से मिश्रित पाउडर तैयार किया जाता है। इस पाउडर में मौजूद पोषक तत्वों को कुपोषण को खत्म करने में कारगर माना जाता है। इस योजना को सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत की महत्वाकांक्षी योजना माना जा रहा है। अब बात ‘ऊर्जा’ योजना के क्रियान्वयन की करें तो इसके संचालन की जिम्मेदारी स्वयं सहायता समूहों को दी गई है। ताकि उन्हें रोजगार भी मिले, लेकिन देहरादून जिले में आंगनबाड़ी केंद्रों में जुलाई माह से ऊर्जा पाउडर खत्म हो रखा है। समूहों का कहना है कि विभाग से बजट नहीं मिलने के कारण वे पहाड़ी उत्पादों की खरीद नहीं कर पा रहे थे।
चार जिलों पर कुपोषण का दाग
नीति आयोग की ओर से कुपोषण पर जारी रिपोर्ट में उत्तराखंड का प्रदर्शन निराशाजनक रहा है। इसमें उत्तराखंड को चार कुपोषित जिलों के साथ 13वें स्थान पर रखा गया था। इनमें हरिद्वार की कुपोषित दर 39.80, यूएसनगर की 37.80, उत्तरकाशी की 35.20, चमोली की 33.70 थी।