नुक्सान तो नुक्सान है। तरबूज तलवार पर गिरे या तलवार तरबूज पर, हर हाल में कटना तो तरबूज को ही है। तलाक एक बार में तीन दिया जाए या कुछ अंतराल के बाद, प्रभावित तो महिला और परिवार को ही होना है। तलाक के तरीकों पर बहस करने की बजाए हमें यह सोचना होगा कि ऐसा क्या किया जाए कि छोटी-छोटी बातों पर परिवार का शिराजा बिखरने न पाए। इस पर राय-मशवरा न कर उत्तर प्रदेश की इलाहाबाद हाई कोर्ट बेंच की तल्ख टिप्पणियों के साथ हम फिर तीन तलाक को लेकर बहस में पड़ गए हैं। पूर्व की भांति एक तबका इसे कुछ यूं पेश कर रहा, मानो मुस्लिम महिलाओं की जड़ता और तमाम पिछड़ेपन की वजह यही है। इसके कारण उनका जीवन नर्क बन चुका है और बात-बेबात तलाक देने की घटनाओं से वह खुद को अन्य कौमों की महिलाओं से अधिक असुरक्षित महसूस करती हैं। इस प्रथा को जल्द समाप्त नहीं किया गया तो उनके प्रति मुस्लिम पुरूषों का अमानवीय व्यवहार असहनीय हो जाएगा, जिसे भारतीय समाज कतई सहन नहीं करेगा।
दूसरी तरफ, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और उसके हमख्याल संगठन आज भी अपने पुराने स्टैंड पर कायम हैं। वे तीन तलाक में किसी तरह का बदलाव नहीं चाहते। उनकी ओर से चेतावनी दी गई है कि ऐसा कोई भी प्रयास मुसलमानों को आंदोलित होने को मजबूर कर देगा। इनका दावा है कि तलाक की कतिपय घटनाओं को हवा देकर कुछ लोग भारतीय संविधान के तहत मजहब संबंधी मुस्लिमों को दिए गए मौलिक अधिकारों का हनन करना चाहते हैं। दरअसल, इस बहाने उन पर कॉमन सिविल कोर्ड थोपने की कोशिश हो रही है।
दोनों पक्षों के अपनी दलीलों पर अड़े रहने से इस समय यह मीडिया की सुर्खियों में है। टीवी चैनलों और अखबारों में चलने वाली बहसों में शामिल होने वाले अधिकतर तीन तलाक की प्रथा खत्म करने के पक्ष में हैं। अलग बात है कि उनमें से अधिकांश को यह तक पता नहीं कि कुरान के सूरा ‘अल-निसा’ में महिला अधिकारों, विवाह, तलाक, दहेज, संपत्ति बंटवारे आदि को लेकर क्या दिशा-निर्देश दिए गए हैं? या सूरा ‘अल-बकरा’ के आयात 232,235 और 242 में तलाक के संदर्भ में क्या बातें कही गई हैं ? ’गूगल सर्च‘ की बदौलत इन बहसों में शामिल होने वालों को समझना चाहिए कि कुरान, हदीस और शरिया के नजरिए से यह मसला इतना पेचीदा है कि बिना गहन अध्ययन-शोध के इस पर निष्पक्षता से राय नहीं रखी जा सकती।
तीन तलाक खत्म करने की वकालत करने वालों का तर्क है कि 21 मुस्लिम देश जब ऐसा कर सकते हैं तो अपने मुल्क में यह संभव क्यों नहीं? इस संदर्भ में यदि कुरान में कोई जिक्र नहीं, फिर भी किन मजबूरियों के तहत इसे भारतीय मुस्लिम औरतों पर लादा हुआ है? क्या मुस्लिम देशों में तीन तलाक के खात्मे के बाद तलाक की दर घट गई है? यदि तीन तलाक में कोई बदलाव संभव नहीं तो मुसलमानों की शिया बिरादरी किस आधार पर इसका समर्थन कर रही है? इस्लाम में तस्वीर खींचने, बनाने और बनवाने की मनाही है। मगर समय की आवश्यकताओं के मद्देनजर उसमें बदलाव किया गया। ऐसा बदलाव समय की मांग के अनुसार तलाक में क्यों मुमकिन नहीं? ऐसे ही तमाम सवालों से तीन तलाक के पैरोकार बुरी तरह घिरे हुए हैं। जहां तक सवाल है 21 देशों में तलाक के तरीके में तब्दीली का तो इजिप्ट, टूनिशिया और श्रीलंका को अनुकरणनीय माना जाता है। सबसे पहले 1929 में इजिप्ट में इसकी पहल हुई थी। जिन देशों में इस पद्धति में बदलाव किया गया है, सभी एक सिटिंग में तीन तलाक की बजाए इसके लिए 90 दिनों की प्रक्रिया का समर्थन करते हैं।
इजिप्ट और श्रीलंका के तरीके को पाकिस्तान ने भी अपनाया है। इराकी सरकार ने 1959 में अपने लॉ ऑफ पर्सनल स्टैटस में बदलाव किया था। रहा प्रश्न इन बदलावों के बाद मुस्लिम देशों में तलाक की दर कम होने का तो ऐसा नहीं है। ‘इस्लामिक होराइजन्स’ नामक पत्रिका में प्रकाशित इलियास बा-यूनुस के शोध पत्र में कहा गया है कि विदेशों में सर्वाधिक 31.7 प्रतिशत तलाक के मामले मुस्लिम समुदाय में दर्ज किए गए। इसमें सबसे ज्यादा बदनाम तुर्की और इजिप्ट हैं, जहां यह दर 10 प्रतिशत से अधिक है। ‘डाइवोर्स अमंग अमेरिकन मुस्लिम्सः स्टैटिक्स, चैलेंज एवं सॉलुशन्स’ नामक पुस्तक की लेखक समाना सिसद्दी एक अध्ययन के बाद इस नतीजे पर पहुंचीं हैं कि अमेरिका में 1960 के बाद मुस्लिम समुदाय में तलाक का प्रतिशत दोगुना से अधिक बढ़ा है। कनाडा में यह प्रतिशत 37 तक आ गया है। नॉर्थ अमेरिकन मुस्लिम कम्यूनिटी पर अध्ययन करने वाले इलियास बा-यूनुस तथा इस्लामिक सोसायटी ऑफ नॉर्थ अमेरिका के उपाध्यक्ष इमाम मोहम्मद माजिद विदेशों में तलाक के बढ़ते मामलों को लेकर बेहद चिंतित हैं।
भारत में तीन तलाक की प्रथा होने के बावजूद यह दर उनके मुकाबले कम है। 2011 की जनगणना के मुताबिक, हिंदुओं में जहां यह दर 68 फीसदी दर्ज की गई, वहीं मुसलमानों का प्रतिशत मात्र 23.3 था। सिखों, ईसाईयों तथा जैनियों में और भी कम है। इसके बावजूद एक पक्ष तीन तलाक की प्रथा में क्यों बदलाव चाहता है? जाहिर है इसकी एकमात्र वजह इसका बढ़ता दुरूपयोग है। जिस प्रकार फोन, मेल, तार, व्हाट्सऐप पर तलाक देने की कुप्रथा बढ़ी है और इस बुराई को रोकने में आलिम और मुस्लिम संगठन निष्क्रिय रहे हैं, हर कोई चिंतित और परेशान है। ऐसे मामले अदालत तक ले जाने वाली महिलाओं का एक ही दर्द है कि शिकायत के बाद भी मुफ्तियों का रवैया निष्ठुर रहा। आज भी उनके व्यवहार में कोई तब्दीली नहीं आई है, जबकि तीन तलाक के दुरूपयोग की शिकायत बढ़ने के साथ ही इस पर अंकुश लगाने को मस्जिद, मदरसों, तकरीरों के माध्यम से मुहिम छेड़ देनी चाहिए थी। अनेक फिरकों में बंटे मुसलमानों में इस बात में कोई मतभेद नहीं है कि इस्लाम में तलाक को लानत यानी बड़ी बुराई बताया गया है। इसके बावजूद वे अब तक खामोश क्यों हैं? भारतीय सुन्नी आलिमों को यह दाग भी मिटाना होगा कि वे अड़ियल हैं।